प्यास…
संदीप साइलस “दीप”
दूर से प्यास बुझती, तो किसी को कहाँ लगती
पी–पी के अश्क़ तू जी गया, प्यास कहाँ लगती।
वो जिसकी तलब थी, नहीं मिला, तो इश्क़ रहा
मिल गया होता, तो इश्क़ की आग कहाँ लगती।
तँहा ना हुए होते, बाद–ए–सबा, सर्द कहाँ लगती
तसव्वुर में ना आते, जाँना की कशिश कहाँ लगती।
वो ग़र पास हुए होते, दिल–तिशनगी, कहाँ लगती
तीरगी के आलम सिवा, ख़्वाबों में लौ कहाँ लगती।
शब–ए–हिज्र, शुक्रिया, नीम–वा रोशनी कहाँ लगती
मेरी सूखी आँखो को, उनकी नमी कब कहाँ लगती।
वादा–ए–वफ़ा निभाया होता, ये ख़लिश कहाँ लगती
वो जुदा ना हुआ होता, ख़ुदा की आस कहाँ लगती।
ज़ख़्म–ए–दिल लिए फिरता हूँ, अब दवा कहाँ लगती
कुछ रखे ज़माने के लिए, वरना नुमाईशें कहाँ लगती।
अब ना हसरत–ए–शाम, ना ख़्वाहिशों से हमें काम
कोई आए ना आए, अब खामोशी भी कहाँ लगती।
एक बेगाने की आस “दीप” क्यूँ रखते हो अपने दिल
ख़ुदा की बारगाह में आओ, यहाँ प्यास कहाँ लगती।
(Written: Delhi; 30 March 2020)