रब्ब को कहा होता…
संदीप साइलस “दीप”
दर्द-ए-दिल को ए इंसां, तूने रब्ब को कहा होता
जिसका अक्स तू जमीं पे है, उसको कहा होता।
शिकस्ताह हाल फिरता है, एतबार किया होता
जिसने तुझे बनाया, उस रब्ब को पुकारा होता।
दस्त-ए-साक़ी ना लाए, वो जाम पिया होता
चाक-जिगर को अपने, ईमान से सिया होता ।
अह्ल-ए-किताब का कलाम, जो तूने सुना होता
रूह का परिंदा तेरा, रब्ब का नाम जिया होता।
चारागर का हक़ तूने, जो ख़ुदा को दिया होता
दुआ ने हर मर्ज़ में, दवा का काम किया होता।
कारवाँ-ए-हयात पे इतना फ़ख़्र ना किया होता
कभी तो रब्ब का भी, तूने एहतिराम किया होता।
इब्तिदा तो कर ली, तू इंतिहा को जिया होता
ख़ुदा की मोहब्बत का भी पैग़ाम लिया होता।
हद पे तू पहुँचता रहा, इख़्लास भी किया होता
जाने-अनजाने कभी वादा-ए-वफ़ा किया होता।
सामने गर तू होता, मैं तुझ को ही जिया होता
तू इश्क़ मेरा होता, मैं “दीप” तेरा ही होता।