रिफ़ाक़त (Companionship) by संदीप साइलस “दीप”

 

रिफ़ाक़त
संदीप
साइलसदीप

सहरा के हौसले भी थे, तेरी हिफ़ाज़त भी थी
आबला-पा हुए ज़रूर, तेरी रिफ़ाक़त भी थी।

दर्द भरे नग़मों जैसी ज़ीस्त जिए शब-ओ-रोज़
परेशान रहे ज़रूर, मगर तेरी अक़ीदत भी थी।

सच तो बहुत दिखे, ज़माने ने बे-आबरू किया
सर उठा के हम तो जी गए, तेरी निस्बत भी थी।

हैरत हुई बहुत से क़रीबियों को देख के बे-पर्दा
तेरे बनाए हुए प्यालों में मगर आदमियत भी थीं।

ये सब क्यूँ तूने दिखला दिया मुझे इतनी जल्दी
अभी तो मेरे कदम उठे ही थे, मासूमियत भी थी।

कोई ख़ास मंजर ज़रूर तू मुझे दिखाना चाहता है
तमाम दुशवारियों तेरी रहम-ए-इल्तिफ़ात भी थी।

दिल दुनिया रौनक़-ए-बहार आए, तेरी ख़बर आए
दूर से साथ निभाने की क्या तेरी सिफ़ाक़त भी थी।

बहुत से लोग खो दिए मैंने, रहगुज़र चलते-चलते
सब कुछ साफ़-साफ़ कहने की मेरी आदत भी थी।

रंग लिए मैंने पैरहन, मुफ़्लिसी में तेरे नाम से पिया
तेरे “दीप” को तुझसे बेतहाशा मोहब्बत भी थी।

रिफ़ाक़त- companionship; सहरा- desert, wilderness; आबला-ए-पा -blisters of feet; अक़ीदत – faith, attachment; बे-आबरू – dishonour; निस्बत- relation; दुशवारियाँ-difficulties; इल्तिफ़ात- kindness; सिफ़ाक़त- culture; पैरहन- dress; मुफ़लिसी-poverty

(Written: Delhi; 19 May 2020)

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