Church of St. Catejan, Goa, India

Not many would know that a Church in India has been modelled on the architectural pattern of St. Peter’s Church in Rome.

Dating to the second half of the 17th century it was built by Italian Friars. Hiding by the River Mandovi near the Divar Island Ferry, it often goes unnoticed due to the importance of The Basilica. But, today I was determined to explore the mystique of this unique place of worship.

Other than the main Altar the side Chapels are also very beautiful in carving and precision. The paintings I found here must date to the very era when the Church was made and have lasted the vagaries of the tropical weather in Goa, especially the heavy monsoons.

We must preserve this cultural heritage at all costs as it is the very Idea of India.

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Queen’s Birthday Party celebration at British High Commissioner’s residence 30 March 2022


  1. As a British Chevening Alumnus, I was invited to the QBP!
    Long live Indo-UK friendship!

https://youtube.com/shorts/0MxSSZ3M6YA?feature=share
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हस्ती मुबारक (Hasti Mubarak) by संदीप साइलस “दीप”

हस्ती मुबारक

मेरे लहू में बहने लगी है, तेरी हस्ती मुबारक
मेरा दिल बस गया है, तेरी बस्ती मुबारक।

ना रही मुझे चाह की मिले बेशुमार शोहरत
तेरे आने से मिल गयी, मुझे किश्ती मुबारक।

ना दिखा तू हसीन मंजर, ना महलों की दौलत
इबादत-खाना है ख़ामोश, तिशनगी मुबारक।

अर्जमंद शहंशाह से कहो, मिट्टी की पुकार सुने
हर शख़्स पहुँच जाता है, उस ज़मीं मुबारक।

दिल रख के फिरता हूँ, तेरी मोहब्बतों का सागर
अल्फ़ाज़ मेरे है सुर की पहचान, मस्ती मुबारक।

जो भी पल उनकी मौजूदगी में, रह जाते हैं चुप
बने हैं लबरेज़ प्याला तनहा, दिल्लगी मुबारक।

खो गया जो उस जहाँ, रोयें क्यूँ, ग़म क्यूँ करें हम
मिल गयी मुझे रब्ब में, आज रहनुमाई मुबारक।

एक निगाह जो उठ के झुके, जाँ-निसार करें हम
आएगी उरूज पे अपनी भी, इत्तीफ़ाकी मुबारक।

सजता है वो रोज़ दुल्हन बन के, आएने के सामने
जिस को आस सताए है, वो ही है “दीप” मुबारक।

तिशनगी- thirst, longing; लबरेज़-overflowing

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रिफ़ाक़त (Companionship) by संदीप साइलस “दीप”

 

रिफ़ाक़त
संदीप
साइलसदीप

सहरा के हौसले भी थे, तेरी हिफ़ाज़त भी थी
आबला-पा हुए ज़रूर, तेरी रिफ़ाक़त भी थी।

दर्द भरे नग़मों जैसी ज़ीस्त जिए शब-ओ-रोज़
परेशान रहे ज़रूर, मगर तेरी अक़ीदत भी थी।

सच तो बहुत दिखे, ज़माने ने बे-आबरू किया
सर उठा के हम तो जी गए, तेरी निस्बत भी थी।

हैरत हुई बहुत से क़रीबियों को देख के बे-पर्दा
तेरे बनाए हुए प्यालों में मगर आदमियत भी थीं।

ये सब क्यूँ तूने दिखला दिया मुझे इतनी जल्दी
अभी तो मेरे कदम उठे ही थे, मासूमियत भी थी।

कोई ख़ास मंजर ज़रूर तू मुझे दिखाना चाहता है
तमाम दुशवारियों तेरी रहम-ए-इल्तिफ़ात भी थी।

दिल दुनिया रौनक़-ए-बहार आए, तेरी ख़बर आए
दूर से साथ निभाने की क्या तेरी सिफ़ाक़त भी थी।

बहुत से लोग खो दिए मैंने, रहगुज़र चलते-चलते
सब कुछ साफ़-साफ़ कहने की मेरी आदत भी थी।

रंग लिए मैंने पैरहन, मुफ़्लिसी में तेरे नाम से पिया
तेरे “दीप” को तुझसे बेतहाशा मोहब्बत भी थी।

रिफ़ाक़त- companionship; सहरा- desert, wilderness; आबला-ए-पा -blisters of feet; अक़ीदत – faith, attachment; बे-आबरू – dishonour; निस्बत- relation; दुशवारियाँ-difficulties; इल्तिफ़ात- kindness; सिफ़ाक़त- culture; पैरहन- dress; मुफ़लिसी-poverty

(Written: Delhi; 19 May 2020)

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शौक़-ए-जीस्त Shauq-e-Zeest by संदीप साइलस “दीप”

शौक़-ए-जीस्त
संदीप साइलस “दीप”

तेरे शौक़-ए-जीस्त से भरा हूँ मैं
तेरी नज़रें इनायत को खड़ा हूँ मैं।

नौ-निहाल हुई दुनिया तेरी बरकत
तेरे सामने हाथ फैलाए खड़ा हूँ मैं।

कहते हैं तू सबका है दिल-निग़ार
तेरे दीदार को तरसता खड़ा हूँ मैं।

सुनते हैं तू दारा-दाता है, मसीहा है
एक साँस बदन में लिए खड़ा हूँ मैं।

तेरी आमद को तैय्यार हमेशा हूँ मैं
रौनक़-ए-इश्क़, रोशन खड़ा हूँ मैं।

तेरे चमन में ये कैसी शमशीर चली
इंसानियत की गुहार लिए खड़ा हूँ मैं।

बंद कर लीं हैं आँखें तेरे नुमाइंदों ने
इंसाँ के दिल का दर्द लिए खड़ा हूँ मैं।

हो गए हैं ख़ामोश तेरे बनाए हुए साज़
होठों पे हज़ारों नग़मे लिए खड़ा हूँ मैं।

इस अंधेरे को दूर, तो करना ही होगा
यक़ीन का “दीप” जलाए खड़ा हूँ मैं।

(Written: Delhi; 25 April 2020)

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वक़्त का तुम… Waqt Ka Tum… by संदीप साइलस “दीप”

वक़्त का तुम
संदीप साइलसदीप

वक़्त का तुम दम भरते हो, वक़्त किसका है
इंतिज़ार करते रहते हो, की ख़त किसका है।

मौसम-ए-बहार की रोज़ तुम राह तकते हो
दरख़्तों से बातें करते हो, परिंदा किसका है।

मन में लिए इख़्लास, क्या-क्या सम्भाले हो
तन्हाइयों में डूबे रहते हो, आसरा किसका है

ये कशिश क्या कभी ले आएगी तुम्हारा प्यार
तारों को गिनते रहते हो, आसमाँ किसका है।

उनकी रूह को ताज़ा, रुख़्सार हँसी रखते हो
असास हैं मज़बूत, उन्हें एहसास किसका है।

यूँ बात-बात आब-ए-दीदा होते हो, बेज़ार हो
कौन पोंछेगा बहते अश्क़, रूमाल किसका है।

आँखों में दास्ताँ, शरीर, हरारत लिए फिरते हो
मोहब्बत भरे लब हैं ख़ामोश, जिगर किसका है।

ख़ंजर-ए-इश्क़, लमहा-बा-लमहा धार रखते हो
खुद ही तो लहू-लुहान रहते हो, दिल किसका है।

चलो बयाबान में चलो “दीप”, वतन किसका है
तेरा हुआ तो आएगा, वरना ख़याल किसका है।

(Written: Delhi; 10 April 2020)

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रब्ब की मर्ज़ी Rabb Ki Marzi by संदीप साइलस “दीप”

रब्ब की मर्ज़ी
संदीप साइलसदीप

वक़्त और शजर दोनो ही उतार देते हैं
लदे हुए ज़माने, ख़ामोश उतार देते हैं।

रब्ब की मर्ज़ी के आगे कौन खड़ा रहा
आसमानी फ़रमान कारवाँ उतार देते हैं।

अच्छे और बुरे का फ़र्क़ बेशक भूल गए
अज़ाब आते हैं तो शहंशाह उतार देते हैं।

ये ताज-ओ-तख़्त बहुत बेशक़ीमती हैं
वज़न नहीं संभला, तो होश उतार देते हैं।

आवाम के ज़ख़्म, किसी को दिखते नहीं
ये जब पकते हैं, सल्तनत उतार देते हैं।

मेरे दिल के दर्द, मेरी जाँ, कुछ ऐसे ही हैं
ये कलम से काग़ज़ पे, ख़ुदा उतार देते हैं।

तू नहीं मिलता तो दिल उदास सा रहता है
ज़मीन-ए-मोहब्बत हम धनक उतार देते हैं।

अपनी-अपनी रूह, ख़ुदाई से भर लो तुम
ज़ुल्मियों के लिबास भी ख़ुदा उतार देते हैं।

दरख़्त रखते हैं हरेक घोंसले को महफ़ूज़
दुआगो “दीप” रूहानियत को उतार लेते हैं।

(Written: Delhi; 17 April 2020)

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दिल निकाल के… संदीप साइलस “दीप” Dil Nikaal Ke… Sandeep Silas

दिल निकाल के…
संदीप साइलस “दीप”

दिल निकाल के रखता हूँ रोज़ तेरे सामने
मेहर की उम्मीद करता हूँ तुझसे तेरे सामने।

कभी वेद पढ़ता हूँ, तो कभी अज़ान गाता हूँ
कभी कबीर, कभी नानक होते हैं मेरे सामने।

नव-दुर्गा का अदब रखना है मुझे ता ज़िंदगी
इंजील-ए-ईसा को भी लाना है तेरे सामने।

ए इंसाँ तू क्यूँ छोड़ता जा रहा अपनी ज़मीं
तेरी पाकीज़गी को मुझे लाना है तेरे सामने।

ये सियासतें, गर्दिश में ले जा रहीं हैं तुझे हिंद
हज़ारों साल की तहज़ीब, देख है तेरे सामने।

ना सुन बुरा, ना कह बुरा, ना देख तू कुछ बुरा
बापू को भूलने से पहले, ज़रा रख उसे सामने।

नफ़रतें ना लाएँगी, अमन-ओ-चैन की दुनिया
हिट्लर भी गया था, अपनी ही गोली के सामने।

ना झूठ बोल, ना कर फ़रेब, तुझे मिली सल्तनत
कुदरत से ना खेल इंसाँ, पुतला है उसके सामने।

नहीं मानेगा तू, तो वो वापस ले लेगा तेरी साँस
कहते हैं वो मन का “दीप” देखता है अपने सामने।

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प्यास… Thirst by संदीप साइलस “दीप”


प्यास

संदीप साइलसदीप

दूर से प्यास बुझती, तो किसी को कहाँ लगती

पीपी के अश्क़ तू जी गया, प्यास कहाँ लगती।

वो जिसकी तलब थी, नहीं मिला, तो इश्क़ रहा

मिल गया होता, तो इश्क़ की आग कहाँ लगती।

तँहा ना हुए होते, बादसबा, सर्द कहाँ लगती

तसव्वुर में ना आते, जाँना की कशिश कहाँ लगती।

वो ग़र पास हुए होते, दिलतिशनगी, कहाँ लगती

तीरगी के आलम सिवा, ख़्वाबों में लौ कहाँ लगती।

शबहिज्र, शुक्रिया, नीमवा रोशनी कहाँ लगती

मेरी सूखी आँखो को, उनकी नमी कब कहाँ लगती।

वादावफ़ा निभाया होता, ये ख़लिश कहाँ लगती

वो जुदा ना हुआ होता, ख़ुदा की आस कहाँ लगती।

ज़ख़्मदिल लिए फिरता हूँ, अब दवा कहाँ लगती

कुछ रखे ज़माने के लिए, वरना नुमाईशें कहाँ लगती।

अब ना हसरतशाम, ना ख़्वाहिशों से हमें काम

कोई आए ना आए, अब खामोशी भी कहाँ लगती।

एक बेगाने की आसदीपक्यूँ रखते हो अपने दिल

ख़ुदा की बारगाह में आओ, यहाँ प्यास कहाँ लगती।

(Written: Delhi; 30 March 2020)

 

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रब्ब को कहा होता… संदीप साइलस “दीप”

रब्ब को कहा होता…
संदीप साइलस “दीप”

दर्द-ए-दिल को ए इंसां, तूने रब्ब को कहा होता
जिसका अक्स तू जमीं पे है, उसको कहा होता।

शिकस्ताह हाल फिरता है, एतबार किया होता
जिसने तुझे बनाया, उस रब्ब को पुकारा होता।

दस्त-ए-साक़ी ना लाए, वो जाम पिया होता
चाक-जिगर को अपने, ईमान से सिया होता ।

अह्ल-ए-किताब का कलाम, जो तूने सुना होता
रूह का परिंदा तेरा, रब्ब का नाम जिया होता।

चारागर का हक़ तूने, जो ख़ुदा को दिया होता
दुआ ने हर मर्ज़ में, दवा का काम किया होता।

कारवाँ-ए-हयात पे इतना फ़ख़्र ना किया होता
कभी तो रब्ब का भी, तूने एहतिराम किया होता।

इब्तिदा तो कर ली, तू इंतिहा को जिया होता
ख़ुदा की मोहब्बत का भी पैग़ाम लिया होता।

हद पे तू पहुँचता रहा, इख़्लास भी किया होता
जाने-अनजाने कभी वादा-ए-वफ़ा किया होता।

सामने गर तू होता, मैं तुझ को ही जिया होता
तू इश्क़ मेरा होता, मैं “दीप” तेरा ही होता।

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